कैसे होती है कृत्रिम वर्षा और यह क्यों जरूरी है?
दिल्ली सरकार स्मॉग और प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए अब क्लाउड सीडिंग यानि कृत्रिम बारिश पर विचार कर रही है। आइआइटी कानपुर के वैज्ञानिकों ने इसके लिए एक खास प्रोजेक्ट तैयार किया है। यदि परिस्थितियां अनुकूल रहीं तो इसका ट्रायल किया जाएगा। क्लाउड सीडिंग की सफलता हवा में नमी की मात्रा, बादलों की उपस्थिति और स्थानीय वायुमण्डलीय स्थितियों पर निर्भर करती है। अध्ययनों के अनुसार क्लाउड सीडिंग से बारिश कराने की सफलता लगभग 60 से 70 प्रतिशत मानी जाती है।
कृत्रिम वर्षा में रसायनों की मदद से बादलों से बारिश कराई जाती है। इसमें सिल्वर आयोडाइड, आयोडीन नमक और रॉक सॉल्ट जैसे पदार्थों के मिश्रण को विमान या ड्रोन के जरिए बादलों में छिड़का जाता है। इससे पानी की बूंदें बनने की प्रक्रिया तेज हो जाती है और इससे बारिश हो जाती है।
कृत्रिम वर्षा मानव निर्मित होती है, जबकि स्वाभाविक वर्षा प्राकृतिक तत्वों पर निर्भर है। क्लाउड सीडिंग उन बादलों पर काम करती है, जिनमें बारिश की संभावना होती है, परन्तु प्राकृतिक परिस्थितियों के चलते वे बारिश नही कर पाते हैं, इसका मतलब यदि बारिश के लिए आवश्यक बादल और उनमें नमी होगी तभी कृत्रिम बारिश होगी अन्यथा नही होगी। इस बारिश के लिए निम्बोस्ट्रेटस बादल सबसे उपयुक्त माने जाते हैं, जो 500 से 6000 मीटर की ऊंचाई पर बनते हैं।
क्लाउड सीडिंग से भीषण बाढ़ का खतरा भी सम्भव है, यदि क्लाउड सीडिंग ऐसे समय की जाए जब बादलों में काफी मात्रा में नमी हो, तो इससे बादलों में वर्षा की प्रक्रिया और तेज हो जाती है, इससे बादल फटने की संभावना बन जाती है और वहां भीषण बाढ़ आ सकती है। ऐसा काफी जगह देखा भी गया है।
कृत्रिम वर्षा पर्यावरण के लिए भी खतरनाक हो सकती है क्योंकि इसका मुख्य घटक सिल्वर आयोडाइड है, जिसके प्रयोग से मिट्टी और जलस्रोतों में सिल्वर कणों की मात्रा बढ़ सकती है, जिससे पौधे, जीव और इंसानों को नुकसान हो सकता है। साथ ही इससे प्राकृतिक वर्षा का चक्र भी प्रभावित हो सकता है, जो कही बाढ़ तो कही सूखा जैसी स्थितियां उत्पन्न कर सकता है। अभी तक 50 देशों में क्लाउड सीडिंग की जा चुकी है।
Source: Kamlesh Agrawal, Rajasthan Patrika
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